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स्वा꣡दि꣢ष्ठया꣣ म꣡दि꣢ष्ठया꣣ प꣡व꣢स्व सोम꣣ धा꣡र꣢या । इ꣡न्द्रा꣢य꣣ पा꣡त꣢वे सु꣣तः꣢ ॥४६८॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुतः ॥४६८॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

स्वा꣡दि꣢꣯ष्ठया । म꣡दि꣢꣯ष्ठया । प꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । धा꣡र꣢꣯या । इ꣡न्द्रा꣢꣯य । पा꣡त꣢꣯वे । सु꣣तः꣢ ॥४६८॥

सामवेद » - पूर्वार्चिकः » मन्त्र संख्या - 468 | (कौथोम) 5 » 2 » 4 » 2 | (रानायाणीय) 5 » 1 » 2


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अगले मन्त्र में यह वर्णित है कि वह सोम अपनी धारा से हमें पवित्र करे।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) रसागार परमेश्वर ! तुम (स्वादिष्ठया) स्वादिष्ठ, (मदिष्ठया) अतिशय हर्षप्रद (धारया) आनन्दधारा से (पवस्व) हमें पवित्र करो। तुम (इन्द्राय) मेरे आत्मा के (पातवे) पान के लिए (सुतः) अभिषुत हो ॥२॥

भावार्थभाषाः -

अपने अन्तःकरण में बहती हुई पवित्रतासम्पादिनी आनन्द-रस की सरिता को अनुभव करता हुआ उपासक कह रहा है कि परमात्मा-रूप सोम से अभिषुत होता हुआ ब्रह्मानन्द-रस इसी प्रकार मेरे आत्मा के पानार्थ निरन्तर धारा-रूप में प्रवाहित होता रहे ॥२॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अथ स सोमः स्वधारयाऽस्मान् पुनीयादित्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (सोम) आनन्दरसागार परमेश्वर ! त्वम् (स्वादिष्ठया) स्वादुतमया (मदिष्ठया) अतिशयेन हर्षप्रदया (धारया) आनन्दसन्तत्या (पवस्व) अस्मान् पुनीहि। त्वम् (इन्द्राय) मम आत्मने (पातवे२) पातुम्। अत्र पा धातोः तुमर्थे तवेन् प्रत्ययः। नित्वादाद्युदात्तत्वम्। (सुतः) अभिषुतो भव ॥२॥३

भावार्थभाषाः -

स्वान्तःकरणे स्रवन्तीं पावयित्रीमानन्दरसतरङ्गिणीमनुभवन्नुपासको ब्रूते यत् परमात्मरूपात् सोमादभिषूयमाणो ब्रह्मानन्दरस इत्थमेव ममात्मनः पानाय निरन्तरं धारारूपेण प्रस्रवेदिति ॥२॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१।१, य० २६।२५, साम० ६८९। २. इन्द्राय इन्द्रार्थम् पातवे पातुम्। असमानकर्तृकेष्वपि छन्दसि तुमर्थीया दृश्यन्ते—इति भ०। ३. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं ‘ये विद्वांसो मनुष्याः सर्वरोगप्रणाशकमानन्दप्रदमोषधिरसं पीत्वा शरीरात्मानौ पवित्रयन्ति ते धनाढ्या जायन्ते’ इति विषये व्याख्यातवान्।